मौलिक विश्लेषण की आलोचना

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की आलोचनात्मक द्रष्टि | Original Article Ramesh Dahiya*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research
मौलिक विश्लेषण की आलोचना
Year: Feb, 2019
Volume: 16 / Issue: 2
Pages: 398 - 402 (5)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: http://ignited.in/I/a/89064
Published On: Feb, 2019
Article Details
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की आलोचनात्मक द्रष्टि | Original Article
Ramesh Dahiya*, in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education | Multidisciplinary Academic Research
मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न
भारतीय संविधान के भाग-III में अनुच्छेद-12 से 35 तक मौलिक अधिकारों को समाहित किया गया है। संविधान द्वारा सभी व्यक्तियों को मौलिक अधिकारों की गारंटी प्रदान की गई है, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित हो। वस्तुत: मौलिक अधिकार सभी व्यक्तियों को समानता प्रदान करने, व्यक्ति की गरिमा, व्यापक जनहित और राष्ट्र की एकता को बनाए रखने में योगदान करता है। ये राजनीतिक लोकतंत्र के आदर्श में बढ़ावा देने के लिये होता है साथ ही यह देश में सत्तावादी और निरंकुश शासन को स्थापित होने से रोकता है तथा राज्य की आव्रमकता के खिलाफ लोगों की स्वतंत्रताओं की रक्षा करता है। इसके अलावा यह कार्यपालिका को लोगों के उत्पीड़न व विधायिका द्वारा मनमाने कानूनों का निर्माण करने से रोकने का काम भी करता है।
हालाँकि इन मौलिक अधिकारों को अक्सर एक व्यापक व विस्तृत आलोचनाओं से भी दो-चार होना पड़ता है, जो कि निम्नलिखित हैं-
- अत्यधिक सीमाओं से ग्रस्त: मौलिक अधिकारों को असंख्य अपवादों, प्रतिबंधों, योग्यताओं आदि के माध्यम से सीमांकित किया गया है जो इसकी प्रभावकारिता को कम करता है।
- सामाजिक व आर्थिक अधिकारों की अनुपस्थिति: मौलिक अधिकारों की प्रदत्त सूची व्यापक नहीं है क्योंकि इसमें मुख्य रूप से राजनीतिक अधिकारों को ही शामिल किया गया है। मसलन इसमें सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम करने का अधिकार, अवकाश आदि जैसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक अधिकारों संबंधी कोई प्रावधान नहीं है।
- स्पष्टता का अभाव: गौर करने योग्य बात यह है कि संविधान में मौलिक अधिकारों को स्पष्ट व सटीकता के साथ प्रस्तुत नहीं किया गया है। इसका प्रमाण यह है कि, विभिन्न अध्यायों में प्रयुक्त वाक्यांशों व शब्दों यथा- सार्वजनिक व्यवस्था, जनहित, अल्पसंख्यकों, युक्तियुक्त निर्बंधन आदि जैसे शब्दों को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।
- स्थायित्व का न होना: भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार दृढ़ व रक्षणीय नहीं है। संसद इसे कभी भी कम या समाप्त कर सकती है जैसे- 1978 में संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की सूची से हटा दिया गया। इसलिये ये संसद में बहुमत प्राप्त पार्टियों व राजनेताओं के हाथों का नाटकीय उपकरण बन जाता है।
- आपातकाल के दौरान निलंबन: राष्ट्रीय आपातकाल के संचालन के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन (अनुच्छेद-20 व 21 को छोड़कर) इसकी प्रभावकारिता पर संशय उत्पन्न करता है।
- निवारक निरोध: कई आलोचकों का मानना है कि निवारक निरोध (अनुच्छेद-22) का प्रावधान मौलिक अधिकारों की मूल आत्मा को खत्म कर देता है। यह राज्य के मनमानी शक्तियों के मौलिक विश्लेषण की आलोचना प्रयोग को बढ़ावा देता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को नकारता है।
यद्यपि मौलिक अधिकारों की उपरोक्त आधारों पर आलोचना की जाती है, तथापि ये अपनी प्रकृति में बेहद महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ये देश में लोकतांत्रिक प्रणाली के आधार स्तंभ को मज़बूत करता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता के हित में एक दुर्जेय बांध के रूप में खड़ा रहता है।
हिंदी आलोचना एवं समकालीन विमर्श/रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति
हिंदी आलोचना में रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति 'प्रगतिवादी समीक्षा' के आधार स्तंभ के रूप में स्वीकार की गई है। उनकी आलोचना का क्षेत्र न केवल विषय की दृष्टि से बल्कि कार्य की दृष्टि से भी अत्यधिक विस्तृत है। उन्होंने हिंदी आलोचना की चर्चा करते हुए संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य, भाषा विज्ञान, इतिहास, मार्क्सवाद, उपनिवेशवाद, समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र जैसे विषयों पर गहराई से विचार किया है। उनकी आलोचना का काल भी प्रायः १९३४ (निराला जी की कविता) से शुरु होकर २००० ई. (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश) तक लगभग सात दशकों में विस्तृत है। इस रूप में समय के साथ-साथ कुछ बाहरी परिवर्तन तो उनकी आलोचना में दिखाई देते हैं पर जैसा कि उन्होंने खुद कहा है कि उनका दृष्टिकोण तो मूलतः एक ही है जो समय के साथ-साथ कुछ बदल गया है। उन्हें आलोचकों में रामचंद्र शुक्ल (आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना), उपन्यासकारों में प्रेमचंद (प्रेमचंद और उनका युग) तथा कवियों में निराला (निराला की साहित्य साधना) सर्वाधिक प्रिय हैं।
किसी आलोचक का मूल्यांकन मूलतः उस दृष्टिकोण का मूल्यांकन होता है जिसे वह अपनी कृतियों में धारण करता है। इस दृष्टिकोण से देखें तो डॉ. शर्मा मूलतः एक मार्क्सवादी रचनाकार हैं, किंतु उन्होंने अपने सृजनात्मक मौलिक विश्लेषण की आलोचना विवेक से मार्क्सवाद का एक प्रगतिशील संस्करण तैयार किया है। इनके लिए प्रगतिशीलता किसी भी परंपरा का सकारात्मक निषेध है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' में स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार लेनिन आदि दार्शनिकों ने मार्क्सवाद को परिस्थितियों के अनुकूल बनाया है वैसे ही भारत की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए मार्क्सवाद में आवश्यक परिवर्तन किए जा सकते हैं।
डॉ. शर्मा न केवल मार्क्सवाद में संशोधन की बात करते हैं बल्कि करके दिखाते भी हैं। वे सिद्ध करते हैं कि मार्क्स द्वारा विश्लेषित औद्योगिक पूंजीवाद चाहे इंग्लैंड में पहले आया हो किंतु पूंजीवाद का एक और प्रकार व्यापारिक पूंजीवाद १२वीं-१३वीं शताब्दी में ही आ चुका था। मार्क्स ने पूंजी या उत्पादन प्रणाली को 'आधार' तथा शेष सामाजिक पक्षों को 'अधिरचना' माना था तथा आधार में परिवर्तन से अधिरचना की स्थिति को प्रभावित माना था। रामविलास जी इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं, क्योंकि पुरानी अधिरचना के तत्व लिए बिना नई अधिरचना नहीं बन सकती। वे आर्थिक कारणों के साथ-साथ सामाजिक कारणों को भी महत्व देते हैं। क्रांति में मजदूरों के साथ किसानों की भूमिका को भी स्वीकार करते हैं, इस प्रकार मार्क्सवाद का एक नया संस्करण तैयार करते हैं।
साहित्य के संबंध में भी उनकी प्रमुख मान्यताएँ या तो मौलिक हैं या सामाान्य प्रगतिवादियों से अलग हैं। सबसे पहले वे 'सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास' नामक निबंध में सौंदर्य को केवल व्यक्ति या विषय में नियत करने के स्थान पर दोनों की अंतर्क्रिया के रूप में देखते हैं। वे साहित्य को भाषा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, समाज और भौगोलिक परिवेश से बनने वाली जातीयता (Nationality) से जोड़कर देखते हैं। उर्वशी की समीक्षा करते हुए प्रगतिशील आंदोलन के लोकवादी स्वरूप के भीतर रस सिद्धांत को स्वीकार कर लेते हैं। निराला की महानता को स्पष्ट करते हुए उनकी जन्मजात प्रतिभा को स्वीकार करते हैं और प्रगतिशील आंदोलन में प्रेम की संभावना को घोषित रूप से स्वीकृति देते हुए कहते हैं - "प्रेम और प्रगतिशील विचारधारा में कोई आंतरिक विरोध नहीं लेकिन स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होेने वाले क्रांतिकारी यह समझते आए थे कि क्रांति और ब्रह्मचर्य का अटूट संबंध है जैसे आजकल के बहुत से कवि और कहानीकार समझते हैं कि आधुनिकता बोध का अटूट संबंध परकीया प्रेम से है।" इसी सृजनात्मक शक्ति का परिणाम है कि वे अपनी प्रगतिशीलता में वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के साहित्य का सूक्ष्म विश्लेषण कर पाते हैं।
रामविलास जी की व्यावहारिक आलोचना का प्रस्थान बिंदु रामचंद्र शुक्ल हैं। उन्होंने उस समय के आलोचकों द्वारा शुक्ल जी की आलोचना का खंडन करने की प्रवृत्ति को देखते हुए उनके महत्व को वैसे ही स्थापित किया जैसे उपन्यासकार के तौर पर प्रेमचंद और कवियों के रूप में निराला को। उनका मानना था कि शुक्ल जी ने आलोचना के माध्यम से उसी सामंती मौलिक विश्लेषण की आलोचना संस्कृति का विरोध किया जिसका उपन्यास के माध्यम से प्रेमचंद और कविता के माध्यम से निराला ने। उन्होंने शुक्ल जी के छायावाद संबंधी मत को समझाते हुए तर्क दिया कि वे नएपन के नहीं बल्कि अगोचरता, परोक्षता तथा लाक्षणिकता के विरुद्ध थे। अगर ऐसा न होता तो वे प्रसाद की लोकपक्ष समन्वित कविता तथा पंत की प्राकृतिक रहस्य भावना का समर्थन न करते। रीति काव्य के संबंध में उन्होंने डॉ. नगेन्द्र के मत का खंडन करते हुए शुक्ल जी के मत की पुनः प्रतिष्ठा की तथा संत साहित्य की समीक्षा में शुक्ल जी के अधूरे कार्य को पूरा करते हुए उसके महत्व का उल्लेख किया।
रामविलास शर्मा की साहित्यिक आलोचना का महत्वपूर्ण बिंदु निराला की साहित्य साधना है, जो कि वस्तुतः रामविलास जी की ही साहित्य साधना है। इस रचना के पहले खंड में उन्होंने निराला के व्यक्तित्व तथा उनकी निर्माणकारी परिस्थितियों की समीक्षा की है। यह हिंदी समीक्षा का वह दुर्लभ बिंदु है जहाँ व्यक्तित्व और कृतित्व अलग-अलग न रहकर एक दूसरे में घुल मिल जाएं। निराला हिंदी में प्रायः शक्ति, ऊर्जा तथा ओज के रचनाकार माने गए हैं किंतु डॉ. शर्मा ने उनके साहित्य का गहरा विश्लेषण करते हुए करुणा को उसके मूल भाव के रूप में प्रतिष्ठित किया तथा उन्हें पश्चिम की महान ट्रेजडी लेखन की परंपरा से संबद्ध किया। इतना ही नहीं उन्होंने निराला-साहित्य के कला पक्ष का भी विस्तृत अध्ययन किया। ट्रैजिक सेंस की दृष्टि से वाल्मीकि, भवभूति तथा तुलसी से और समग्रता की दृष्टि से टैगोर, तुलसी और सूर से निराला की तुलना और मूल्यांकन किया है।
रामविलास जी ने उन रचनाकारों के महत्व की स्थापना की जो किसी न किसी रूप में साहित्य की जनवादी परंपरा से जुड़े हुए थे। ऐसे रचनाकारों में प्रेमचंद का नाम अग्रगण्य है। उनके 'सेवासदन' को डॉ. शर्मा ने नारी पराधीनता को उजागर करने वाला उपन्यास तो गोदान को ग्रामीण और शहरी कथाओं को मेहनत और मुनाफे की दुनिया का अंतर बताने वाला माना। इसके अतिरिक्त 'भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ' में भारतेंदु तथा उनके युगीन लेखकों के महत्व का अंकन किया तथा 'महावीर प्रसाद मौलिक विश्लेषण की आलोचना द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' में नवजागरण के संदर्भ में द्विवेदी जी के आर्थिक-सामाजिक व अन्य विषयों के विश्लेषण को महत्व प्रदान किया।
रामविलास शर्मा की एक सीमा यह है कि वे जिस रचनाकार को पसंद नहीं करते उसके प्रति विध्वंसात्मक रवैया अपना लेते हैं। उनकी आलोचना इस बात को भी लेकर की जाती है कि वे पहले अपना शत्रु तय कर लेते हैं फिर उसके विचारों को पढ़कर तथा संभावित विचारों की कल्पना करके आक्रामक शैली में आलोचना लिखते हैं। इस दृष्टि से पंत की 'स्वर्ण किरण' और 'स्वर्ण धूलि' की समीक्षाएँ महत्वपूर्ण हैं। अज्ञेय और मुक्तिबोध के प्रति 'नई कविता और अस्तित्ववाद' में व्यक्त उनके विचार भी इसी पूर्वग्रह का परिणाम कहे जा सकते हैं। हालांकि ध्वंसात्मक भंगिमा रखते हुए भी वे आलोचकों को चुनौती देते हैं कि जो बातें मुझसे छूट गई हों, उन्हें प्रकाश में लाइए और जो बातें मैंने गलत कहीं हों उनका तर्कपूर्ण खंडन करिए ('मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य' में व्यक्त विचार)। उनकी इस चुनौती को हिंदी आलोचना में नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने स्वीकार किया तथा छायावाद, नई कविता, मुक्तिबोध और साहित्य के इतिहास दर्शन से संबंधित विभिन्न विषयों पर एक समानांतर विचार प्रस्तुत किया।
समग्र रूप में रामविलास शर्मा के आलोचना कर्म के संबंध में कहा जा सकता है कि वे विस्तार और गहराई की दृष्टि से अप्रतिम हैं। अपने मौलिक चिंतन तथा लोकबद्ध मान्यताओं के कारण प्रगतिशील समीक्षा की धुरी बन जाते हैं। उनकी आक्रामक शैली कहीं-कहीं औदात्य का अतिक्रमण अवश्य करती है, किंतु जटिल से जटिल बात को सरलतम शब्दों में ओजपूर्ण प्रवाह के साथ कहने की उनकी क्षमता मौलिक है। उनसे विद्वानों की सहमति हो या न हो किंतु उनकी मान्यताओँ से जूझे बिना आलोचना का विकास संभव नहीं है।
हिंदी आलोचना एवं समकालीन विमर्श/नामवर सिंह की आलोचना पद्धति
प्रगतिवादी हिंदी आलोचना के एक समर्थ हस्ताक्षर के रूप में डॉ. नामवर सिंह का नाम लिया जाता है। उन्होंने आदिकालीन साहित्य से लेकर नए से नए हिंदी कवियों व लेखकों को अपनी आलोचना का विषय बनाया है। वे पृथ्वीराज रासो से लेकर मुक्तिबोध और धूमिल तक की लंबी और विशाल काव्य परंपरा को आत्मसात कर उसकी सम्यक् समीक्षा करते हैं। इनके लेखन का आरंभ अपभ्रंश से होता है किंतु नयी कविता और समकालीन साहित्य पर भी सर्वाधिक सशक्त टिप्पणी करने वालों में वे अग्रणी रहे।
नामवर सिंह ने अपना आलोचकीय जीवन 'हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान' से आरंभ किया था। इसमें अपभ्रंश साहित्य पर विचार करते हुए बीच-बीच में नामवर जी ने टिप्पणियाँ दी हैं, वे विचारपूर्ण एवं सुचिंतित हैं। वे सूक्ष्मदर्शिता और सहृदयता के साथ मार्क्सवादी आलोचना पद्धति का रूप प्रस्तुत करती हैं। इसमें अपभ्रंश साहित्य की कतिपय महत्वपूर्ण रचनाओं का परिचय देते हुए उनके सौंदर्य पक्षों का उद्घाटन किया गया है। उनके अनुसार भावधारा के विषय में अपभ्रंश से हिंदी का जहाँ केवल ऐतिहासिक संबंध है, वहाँ काव्य रूपों और छंदों के क्षेत्र में उस पर अपभ्रंश की गहरी छाप है।
सिद्धों की रचनाओं के विषय में उनका विचार है कि कुल मिलाकर सिद्धों की रचनाओँ में जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण है। हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश के उद्धृत दोहों की नामवर जी ने संदर्भ देते हुए ऐसी मार्मिक व्याख्या की है कि तत्कालीन समाज का नितांत आत्मीय रूप हमारी आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है। 'पृथ्वीराज रासो की भाषा' के पाठशोध में हजारी प्रसाद द्विवेदी का सहयोग करने के साथ-साथ नामवर सिंह ने रासो संबंधी कुछ लेख भी उसी पुस्तक में जोड़ दिए हैं (पृथ्वीराज रासो : भाषा और साहित्य)। यद्यपि ये लेख परिचयात्मक ही हैं फिर भी एकाध स्थलों पर लेखक की सहृदयता, रस-ग्राहिकी और आलोचकीय क्षमता का पता चलता है। इन दो पुस्तकों में डॉ. नामवर सिंह के आलोचक रूप की अपेक्षा उनका शोधकर्ता, इतिहासकार रूप अधिक उभरता है। फिर भी हिंदी साहित्य के इतिहास की एक नवीन दृष्टि, मार्क्सवादी दृष्टि से देखने-समझने की शुरुआत यहाँ से हो जाती है।
'छायावाद' नामक कृति में नामवर जी ने छायावाद की काव्यगत विशेषताओँ को स्पष्ट करते हुए उसमें निहित सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन किया। यह प्रगतिवादी आलोचना के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। १२ अध्यायों में विभक्त इस कृति में विभिन्न अध्यायों के विवेच्य विषयों को सूचित करने के लिए जो शीर्षक दिए गए हैं, उनमें से अधिकांश छायावादी कवियों की काव्य-पंक्तियों के ही टुकड़े हैं। शीर्षकों से ही स्पष्ट है कि विवेचन में छायावादी काव्य वस्तु से सैद्धांतिक निष्कर्ष तक पहुँचा गया है। यहाँ पर गुण से नाम की ओर बढ़ा गया है तथा नामकरण की सार्थकता इस विशिष्ट काव्यधारा की काव्य-संपत्ति के आधार पर निश्चित की गयी है। किसी वाद पर हिंदी में इस वैज्ञानिक और निगमनात्मक ढंग से पहली बार विचार किया गया है। इसे रहस्यवाद, स्वच्छंदतावाद और छायावाद नाम से अभिहित किया गया है। इसमें छायावाद की विभिन्न विशेषताओं, रचनाओं, रचनाकारों का विधिवत विवेचन किया गया है।
छायावाद की अन्यतम कृति 'कामायनी' की प्रतीकात्मकता एवं रूपकत्व पर मौलिक विश्लेषण की आलोचना नामवर सिंह ने विचार किया है। इन्होंने कामायनी के रूपकत्व के सामाजिक आयाम पर विचार करते हुए कहा है कि 'इसमें आधुनिक समस्याओँ पर भी विचार किया गया है'। कामायनी में व्यंजित प्रतीकों को लेकर नामवर सिंह कहते हैं कि "देवसंपन्नता का ध्वंस वस्तुतः हिंदू राजाओं और मुसलमान नवाबों तथा मुगल बादशाहों के विध्वंस का प्रतीक है। हिमसंस्कृति प्राचीन जड़ता तो उषा नवजागरण की प्रतीक है। मनु देव-सभ्यता का प्रतीक है, कुमार प्रजातांत्रिक सभ्यता का। देवासुर संग्राम आत्मवाद एवं बुद्धिवाद के संघर्ष का प्रतीक है। इस प्रकार प्रसाद ने कामायनी में आधुनिक भारतीय सभ्यता के विविध पहलुओं का सजीव चित्रण किया है। यह भारत की आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य है।"
नामवर मौलिक विश्लेषण की आलोचना सिंह ने निराला की लंबी कविताओं 'सरोज स्मृति' और 'राम की शक्तिपूजा' का विश्लेषण अत्यंत सहृदय और भाषिक सर्जनात्मकता के स्तर पर किया है। कथा-साहित्य में प्रेमचंद तथा उनके समकालीनों ('प्रेमचंद और भारतीय समाज') के साथ ही साथ उन्होंने नई कविता के तर्ज पर नई कहानी ('कहानी : नई कहानी') के तमाम कथाकारों का भी सहानुभूति एवं संवेदना के धरातल पर विश्लेषण-मूल्यांकन किया है। सिद्धांत निरुपण संबंधी उनकी विशिष्ट प्रतिभा 'कविता के नए प्रतिमान' में दृष्टिगत होती है। इस पुस्तक के प्रथम खंड में उन्होंने प्रतिष्ठित काव्य प्रतिमानों की विस्तृत आलोचना करते हुए उनकी सीमाएँ बतायी हैं, तथा द्वितीय खंड में नई कविता के संदर्भ में काव्य-प्रतिमानों के प्रश्न को नए सिरे से उठाया गया है।
'कविता के नए प्रतिमान' में नामवर जी ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'अंधेरे में' की समीक्षा कर सबके लिए समीक्षा का द्वार खोल दिया। उनके अनुसार 'अंधेरे में' का मूल कथ्य अस्मिता की खोज है। अस्मिता की अभिव्यक्ति को परम अभिव्यक्ति से जोड़ते हुए नामवर जी ने कवि मुक्तिबोध के लिए अस्मिता की खोज को अभिव्यक्ति की खोज माना है। एक कवि के लिए परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है। मुक्तिबोध ने आत्मसंघर्ष के साथ-साथ बाह्य सामाजिक संघर्ष को भी स्वीकार किया है। आत्म-संघर्ष की परिणति अंततः सामाजिक संघर्ष में होती है। उन्होंने रामविलास शर्मा की 'नई कविता और अस्तित्ववाद' में व्यक्त मान्यताओं को चुनौती देते हुए मुक्तिबोध जैसे कवियों के साहित्यिक मूल्य को पुनर्स्थापित किया। परंपरा संबंधी रामविलास शर्मा की स्थापनाओं ('परंपरा का मूल्यांकन') से टकराने के क्रम में उन्होंने 'दूसरी परंपरा की खोज' का व्यवस्थित प्रयास किया।
नई कविता के संदर्भ में नए काव्य प्रतिमानों का प्रश्न उठाते हुए नामवर सिंह लिखते हैं - "कविता के प्रतिमान को व्यापकता प्रदान करने की दृष्टि से आत्मपरक नई कविता की दुनिया से बाहर निकलकर उन कविताओं को भी विचार की सीमा में ले आना आवश्यक है जिन्हें किसी अन्य उपयुक्त शब्द के अभाव में सामान्यतः 'लंबी कविता' कह दिया जाता है।" कविताओँ के इस आत्मपरक वर्ग के विरुद्ध उन्होंने मुक्तिबोध की लंबी कविताओं का उदाहरण देकर सामाजिक वस्तुपरक काव्य मूल्यों की स्थापना पर ज़ोर दिया। ये कविताएँ अपनी दृष्टि में सामाजिक और वस्तुपरक हैं और आज के ज्वलंत एवं जटिल यथार्थ को अधिक से अधिक समेटने के प्रयास में कविता को व्यापक रूप में नाट्य-विचार प्रदान कर रहे हैं और इस तरह तथाकथित बिंबवादी काव्यभाषा के दायरे को तोड़कर सपाटबयानी आदि अन्य क्षेत्रों में कदम रखने का साहस दिखा रहे हैं।
नामवर सिंह की आलोचकीय ख्याति अपेक्षाकृत काव्य-आलोचना के क्षेत्र में अधिक रही। जिन काव्य-मूल्यों का प्रश्न उन्होंने उठाया, उनमें भावबोध से लेकर काव्यभाषा तक के स्तर तक काव्य-सृजन को एक सापेक्ष इकाई के रूप में देखने का प्रयास है जिसमें रचना के निर्माण में एक विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक परिवेश के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। उन्हें वाचिक परंपरा का मूर्धन्य आलोचक भी माना जाता है। सभा-गोष्ठियों में दिये गए उनके व्याख्यानों को ही पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवा दिया गया। 1959 के एक व्याख्यान में उनकी कही यह बात आज भी प्रासंगिक है, "आधुनिक साहित्य जितना जटिल नहीं है, उससे कहीं अधिक उसकी जटिलता का प्रचार है। जिनके ऊपर इस भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने भी इसे बढ़ाने में योग दिया।" यहां वे 'साधारणीकरण' की चर्चा करते हुए कहते हैं, "नए आचार्यों ने इस शब्द को लेकर जाने कितनी शास्त्रीय बातों की उद्धरणी की, और नतीजा? विद्यार्थियों पर उनके आचार्यत्व की प्रतिष्ठा भले हो गई हो, नई कविता की एक भी जटिलता नहीं सुलझी।" नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के संबंध में भी अपना प्रगतिशील दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने 'साहित्यिक इतिहास क्यों और कैसे?' निबंध में हिंदी साहित्य के इतिहास को फिर से लिखे जाने की आवश्यकता बताई है। 'इतिहास और आलोचना' के अंतर्गत उन्होंने 'व्यापकता और गहराई' जैसे महत्वपूर्ण काव्य-मूल्यों को परस्पर सहयोगी बताने का मौलिक साहस दिखाया जबकि इन दोनों को परस्पर विरोधी गुणों के रूप में स्वीकार किया गया था। देखा जाय तो नामवर सिंह प्रगतिशील आलोचना की ऐसी पद्धति विकसित करते हैं जो रामविलास शर्मा की स्थापनाओं से जूझते हुए उसका विस्तार भी करती है।
किताबें/आलोचना: विधाओं की विरासत
यह वस्तुतः आलोचना की पुस्तक है. अपनी लेखन शैली के कारण यह सही मायनों में आलोचना के साथ विधाओं के इतिहास की भी पुस्तक बन गई है.
विश्वनाथ त्रिपाठी
- नई दिल्ली,
- 30 अप्रैल 2012,
- (अपडेटेड 30 अप्रैल 2012, 9:15 PM IST)
हमारे समय में जानकारियों का विस्फोट हो रहा है. सूचनाओं का तंत्र इतना विकसित हो गया है और हो रहा है कि गति के कारण सब कुछ अस्थिर, गतिमान लग रहा है. इस सबका दबाव साहित्य पर पड़ना अनिवार्य है. उसकी वस्तु के साथ-साथ उसके रूप तट भी टूट रहे हैं. वस्तु की व्याख्या-विश्लेषण करने वालों की कमी नहीं है लेकिन रूप पर गंभीर विचार करने वाले कम क्या, दुर्लभ हैं.
ऐसी स्थिति में प्रतिष्ठित कथाकार मौलिक विश्लेषण की आलोचना और चिंतक अरुण प्रकाश की साहित्य रूपों पर मौलिक विचार करने वाली इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है. इस किताब के प्रारंभ में ही रूप-बंध और विधा को पृथक करते हुए फार्म के लिए रूपबंध और जेनर के लिए विधा शब्द का प्रयोग किया गया है. रूप-बंध शब्द-संयोग मौलिक है. हिंदी आलोचना में अब तक रूप और विधा में ऐसा अंतर नहीं किया जाता था. आशा है कि अरुण प्रकाश द्वारा प्रस्तावित प्रयोग-अंतर मान्य होगा.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ही गद्य की प्रखरता स्थापित कर दी थी. गद्य हमारे सामाजिक व्यवहार का लगभग एक मात्र भाषा-रूप बन गया है. इसीलिए उसमें नए-नए रूपबंधों और विधाओं का आविष्कार निरंतर हो रहा है. अरुण प्रकाश ने इस पुस्तक की रचना हिंदी गद्य के इतिहास में निर्णायक और अभूतपूर्व सक्रिय दौर में की है और इस सक्रियता से उपजी समस्याओं और विवेचन-विश्लेषण का मूल्यांकन किया है. विचार प्रक्रिया से गुजरने वाला पाठक इस मौलिक विश्लेषण की आलोचना मौलिक विश्लेषण की आलोचना बात का अनुभव आद्यंत करता रहता है कि लेखक ने जिन तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाले हैं वे विश्वसनीय तो हैं ही, विचारक ने उन्हें अंतिम या स्थिर नहीं, निरंतर विकसमान और गत्वर माना है. अरुण प्रकाश ने आसान नहीं कठिन रास्ता चुना है.
तथ्य संकलन इतने व्यापक स्तर पर किया गया है कि प्रत्येक रूप-बंध (या विधा) का इतिहास भी लपेट में आ गया है और उसके प्रमुख नाम भी. यह काम हिंदी के ही नहीं, अनेक भाषाओं के क्षेत्रों तक फैला है. पाठक किताब पढ़ते हुए अनेकानेक विद्या अनुशासनों और सामाजिक इतिहास की दुर्लभ (कभी-कभी चौंकाने वाली) सूचनाओं से मुखातिब होता है. इन सूचनाओं का कारण निस्संदेह लेखक का मौलिक विश्लेषण की आलोचना बहुज्ञ होना है. लेखक पत्रकार तो हैं ही, वे इतिहास में विशेष रुचि रखते हैं.
पुस्तक में गद्य की अद्यतन विधाओं का निरूपण किया गया है. उन विधाओं के उद्भव के सामाजिक, ऐतिहासिक संदर्भ का नेपथ्य बताया गया है. ये विधाएं परस्पर इतनी मिली-जुली और समान हैं कि इनकी रूपात्मक निजता अकसर ओझ्ल हो जाती है. अनुभवी ही जानते हैं कि साहित्य की विधाओं पर काम करने वाले को मनोविश्लेषक के साथ-साथ मानसिक प्रवृत्तियों की भी पहचान होनी चाहिएः ''स्मृति के वल सूचना नहीं है कि उसे शुद्ध रूप से फिर से हासिल कर लिया जाए.
स्मृति, हमारी सूचना को पहचनाने की क्षमता को भी धूमिल करती है. आप खोज रहे हैं कुछ, मिला उससे मिलता-जुलता कुछ और. इसीलिए संस्मरण को संदेह से देखा जाना चाहिए. उसे संदेह से परे मानने की गलती कतई नहीं करनी चाहिए.''
यह पुस्तक एक पत्रकार, उससे बढ़कर एक रचनाकार और उससे भी बढ़कर समाजवादी विचारधारा से लैस देशप्रेमी बहु-पठ व्यक्ति द्वारा लिखी गई है. यह वस्तुतः आलोचना की पुस्तक है. अपनी लेखन शैली के कारण यह आलोचना के साथ विधाओं के इतिहास की भी पुस्तक बन गई है. बीच-बीच में अरुण प्रकाश का रचनाकार आता है जो इस आलोचना-इतिहास की पुस्तक को सर्जनात्मक पठनीयता से संपृक्त कर देता है. डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर, राजकिशोर को शायद पहली बार हिंदी निबंधकारों की श्रेणी में रखकर विचार किया गया है. गद्य की पहचान ऐसी दुर्लभ आलोचना कृति है जो वस्तुनिष्ठता के साथ सर्जनात्मकता से भूषित है. सच्ची आलोचना भी सर्जना होती है और गद्य की पहचान इस कथन का सार्थक उदाहरण है.